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तपिश
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अभी हाल ही में उत्तराखंड के जगलों में लगी आग ने आस पास के क्षेत्रों का भी तापमान बढ़ा दिया था | वो तो थोड़ी सी बारिस और हमारे सेना के जवानों की तत्परता से आग और गर्मी पर कुछ काबू पाया जा सका | वैसे तो जंगल में आग लगना साधारण बात है, क्योंकी हर साल ऐसी घटनाएं देश के जंगली हिस्सों में होती ही रहती हैं। लेकिन इन दिनों उत्तराखंड में जैसी आग फैली और हिमाचल होते हुए कश्मीर तक पहुँच गई ये आश्चर्यजनक है । इससे पहले, 2009 में उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगी थी जिसमें जान-माल का बहुत नुकसान हुआ था | इस बार भी नुकसान हुआ। कई लोगों के मरने और झुलसने की खबर है। कितने पशु-पक्षी मारे गए होंगे इसका कोई आंकड़ा नहीं है । इस आग में उन लोगों का जीवन ज्यादा प्रभावित हुआ जिनकी निर्भरता जंगलो पर है | देश में जैव विविधता की दृष्टि से उत्तराखंड जाना जाता है। वन संपदा का यह नुकसान हमारे जीवन का नुकसान है क्योकि पर्यावरण के साथ ही प्राणवायु का भी नुकसान है । हम जानते है कि जंगल में आग लगने का कारण प्राकृतिक है ,परन्तु अगर थोड़ी सावधानी बरतें तो इसपर भी काबू पाया जा सकता है। तेज हवाओं और मौसम में सूखापन ने भी आग में घी का काम किया | इसका असर व्यापक रूप से पड़ेगा ,हिमालयी ग्लेशियर पर इसका असर पड़ सकता है | जलस्रोतों पर भी इस आग का असर पड़ेगा। और जब जलस्रोतों के कारण खेती पर असर पड़ेगा तो हमारी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा | सब कुछ एक दुसरे से जुड़ा है और हम एक के बिना दुसरे की कल्पना नहीं कर सकते | पर्यटन को भारी नुकसान होगा , जो राज्य की आय का एक साधन है। ऐसे हादसों का सामना स्थानीय लोंगों की भागीदारी के बगैर नहीं किया जा सकता। सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए क्योकिं स्थानीय लोग बहुत सहायक होंगे अगर उन्हें जरूरी उपकरण या संसाधन मुहैया कराए जाएं तो इस तरह के आकस्मिक हादसों को रोका जा सकता है। भारत सरकार और राज्य सरकार दोनों ही वनसंपदा के विकास और सुरक्षा के लिए बज़ट में प्रावधान करते है परन्तु कोई प्रभावी और जबाबदेह संरचना नहीं होने के कारण कोई ठोस कार्य नहीं हो पता और फिर हर हादसों के बाद सभी सरकारी मुलाज़िमो के पास रटा रटाया जबाब होता है जो वो हर हादसों के बाद मीडिया में गाते रहते है | लेखिका अमृता राज -‘पी. आर प्रोफेशनल्स’-
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